हर चीज़, हर परिस्थिति को सहर्ष कैसे स्वीकारते हैं? 12वीं में मैंने मुक्तिबोध जी की वह कविता ‘सहर्ष स्वीकारा है’ पढ़ी तो कविता की प्रत्येक पंक्ति, प्रत्येक शब्द के मर्म को नही समझा था। समझने की विधा को अगर किनारे रखें तो कविता मुझे बहुत पसंद आई। आज भी उन पंक्तियों को मन में पढ़ती हूँ तो सुखद अनुभूति होती है। क्यों? पता नही जबकि कविता में क्षोभ है, विरह है, ग्लानि है। पर शायद किसी के होने का एहसास और कवि का उसके होने मात्र से सब कुछ सहर्ष स्वीकारने का जज़्बा ही कविता के सौंदर्य प्रदान करता है। पर, क्या ये संभव है? किसी व्यक्ति मात्र के होने या उसके वजूद के एहसास से सब कुछ सरल हो जाता है? मूलभूत प्रश्न वही, कि आखिर हर अच्छी से अच्छी, बुरी से बुरी चीज़,अथवा परिस्थिति को सहर्ष कैसे स्वीकार लें? वो ऊर्जा मात्र एक व्यक्ति के होने मात्र से ही प्राप्त होती है या फिर उस जुड़ाव की दिव्यता और पवित्रता हमें प्रोत्साहित करती है, हर विडंबना का सामना करने के लिए?
क्या कवि का जीवन, उसकी पूरी कहानी किसी दूसरे पर निर्भर है? क्या उसने खुद को, और खुद से जुड़ी तमाम बातों को किसी और पर आश्रित कर दिया? अगर उत्तर ‘नही’ है तो फिर क्यों उसने किसी और के एहसास में सब कुछ सहर्ष स्वीकारा है?
इतने प्रश्न, हर बार कविता की बस एक पंक्ति दोहराकर सामने प्रकट हो जाते हैं, ‘जीवन में जो कुछ है, सहर्ष स्वीकारा है। क्योंकि, जो कुछ भी मेरा है, वह तुम्हे प्यारा है’।
कविताएं बहुत कम शब्दों में हमसे बहुत कुछ कह देती हैं, साथ ही हमें सोचने पर इतना मजबूर कर देती हैं कि यदि हम उन विचारों को लिखने बैठ जाए तो संभवतः एक किताब लिख दी जाए। मात्र एक कविता में इतनी शक्ति साबित करती है कि कविताएं साहित्य का वो अटूट हिस्सा हैं जो सीमित शब्दों में भी अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेती हैं। पढ़ने वाले को कविता का मर्म समझने से लेकर उसमें निहित प्रश्नों का उत्तर आप ही तलाशना होता है। भावार्थ और मर्म में अंतर है। भावार्थ बहुतों के लिए एक से हो सकते हैं, संभवतः सभी के लिए एक सार्वभौमिक भावार्थ भी हो सकता है। पर, मर्म? यह तो हमारी अपनी अनुभूतियों की, हमारी अपनी समझ की उपज है। कविता में निहित मर्म हमारे अपने होते हैं, हम उन्हें खुद ढूढंते हैं (यदि हम प्रयास करें)। पर इससे पूर्व हमें ढूंढने होते हैं कुछ सवालों के जवाब, जो हर बार हर नई कविता पढ़कर हमारे सामने प्रकट होते हैं।
एक कुशल पाठक होने के लिए आवश्यक नही कि हम इस प्रक्रिया का हिस्सा बनें। कुशल पाठक कोई भी हो सकता है। पर, एक मर्मज्ञ होने के नाते ये आवश्यक है कि हम उन प्रश्नों का उत्तर अपने जीवन या आसपास अपने माहौल में तलाशें। हम यही तो चाहते हैं। क्योंकि जो मर्म हम ढूढंते या गढ़ते हैं, वे हमारे जीवन से ही प्रेरित होते हैं। इसलिए, कविताओं को बस गेयात्मक समझकर पढ़ना पर्याप्त नही, उनमें अपना ‘आप’ तलाशने की कोशिश करना ज़रूरी है। शायद, इस बिंदु को सहर्ष स्वीकार लेने से हम बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। अब, सहर्ष कैसे स्वीकारें ये तो हमपर निर्भर करता है।
©कौशिकी (Shanya)